मुंबई: कई भारतीयों का यह मानना है कि एक उभरते शक्तिशाली देश होने के नाते विश्व के मामलों में इसकी एक बढ़ती भूमिका है। चकरा देने वाली अंतरराष्ट्रीय संगठनों और संस्थानों की एक श्रंखलाए जो ऐसे प्रतीत होते हैं मानो स्क्रेबल के खेल में चुने गए हों, के माध्यम से दूसरे देशों के साथ सहयोग करके सरकार एक वैश्विक रूपरेखा बनाने का प्रयास कर रही है। इनमें से ब्रिक्स, सीएचओजीएम, एसीयन, ईबसा, सार्क, एनएएम, आईओसीएआरसी केवल कुछ ही नाम हैं।
भारत की विदेश नीति संस्थापन भी यह मानती है कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट का हकदार है। विश्व के लगभग प्रत्येक उल्लेखनीय नेता के लिए नई दिल्ली एक महत्वपूर्ण यात्रा का स्थल बन गया है और इनके साथ आमतौर पर ऐसे व्यापारी आते हैं जो भारत के विशाल बाज़ार में अपनी पहुँच बनाने के लिए अवसर तलाश रहे हैं। लगभग सभी इस बात का समर्थन करते हैं कि भारत को सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट मिलनी चाहिए।
फिर भी भारत एक अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिका में क्या करेगा, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है। आज तक, इसने विदेश में प्रजातंत्र और मानव अधिकार के लिए आदर को बढ़ावा देने के लिए अन्तर्शासकीय संगठनों का प्रयोग नहीं किया है। बल्कि, यह विशाल देश महत्वपूर्ण मुद्दों पर कई सालों से कोई पक्ष नहीं लेता है। वह शायद ही कभी विशिष्ट देशों पर मानव अधिकार के प्रस्तावों पर वोट करता है (परंतु, पिछले दो वर्षों में श्रीलंका एक अच्छा अपवाद रहा है)। सुरक्षा परिषद में इसकी हाल ही की दो-वर्षीय अवधि को विदेश नीति के हलकों में निराशाजनक रूप से देखा गया है। भारत अंतराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के महत्वपूर्ण मुद्दों से दूर रहा] तब भी जब आम जनता के जीवन को भी गंभीर खतरा था] यह नीति के मामले में एक ऐसा पक्षाघात है जिसने इसकी महानता बढ़ाने में कोई मदद नहीं की है।
विकासशील विश्व में शायद सर्वश्रेष्ठ रूप से स्थापित एक प्रजातंत्र होने के नाते, प्रजातंत्र और अधिकारों के प्रोत्साहक के रूप में भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक शक्तिशाली भूमिका निभा सकता है, और परिणामस्वरूप विश्वभर के मज़लूमों और अधिकारहीन लोगों के साथ एक समान अभियान से जुड़ सकता है। जहाँ भारत राष्ट्रों की संप्रभुता की रक्षा करना चाहता है, उसे नागरिकों के अधिकारों के लिए बोलना चाहिए, और सरकारों की कार्रवाईयों के बारे में नहीं।
फिर भी, हाल के वर्षों में इसने इस दिशा में ऐसे कोई भी महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाए हैं।
अपनी बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था की शक्ति और एक अंतरराष्ट्रीय दाता के रूप में उत्तोलन की शक्ति के बावजूद, ऐसा प्रतीत होता है कि भारत को केवल एक स्पष्ट दूरदर्शिता इसी बात की है कि वह क्या नहीं करना चाहता है। वह पश्चिमी देशों द्वारा dh गइॅ उन पहलों से दूर रहता है जो उसे आक्रामक लगते हैं। वह उन कार्रवाईयों से भी बचता है जो उसकी नज़र में चीन के उसके कूटनीतिक एजेंडा के खिलाफ़ जाते हैं।
अपने बढ़ते हुए प्रभाव के चलते, ऐसा लगता है कि नई दिल्ली ने चीन की दूसरे देशों के “आंतरिक मामलों” में अहस्तक्षेप को बढ़ावा देने वाली चयनात्मक नीति को अपना लिया है। इसकी विदशी नीितयों से इसकी fद्वापक्षीय सहभागिता और “शांत कूटनीति” ज़ाहिर होती है। विशेषज्ञ सरकार देशों द्वारा मानव अधिकार के उल्लंघनों पर अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई में अविश्वास जताते हैं, यह कारण बताते हुए कि छोटे और कमज़ोर देशों पर निशाना साधा जाता है, और बड़ी शक्तियों और पश्चिम के चहेतों को अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई से बचाया जाता है। नई दिल्ली स्वयं को उन विकासशील देशों की सरकारों का चैम्पियन समझता है जो यह मानकर चलते हैं कि इनके पिछले कोलोनियल मालिकों ने पहले तो इनकी अर्थव्यवस्था का नाश कर दिया और अपने वित्तीय लाभ के लिए कोलोनियों में सांप्रदायिक विभाजन बना दिए और अव वह ऐसे आदर्श उनपर लागू कर रहे हैं जिनका सदियों पहले उन्होंने स्वयं उल्लंघन किया था।
परंपरागत रूप से, यूरोपीय और उत्तरी अमेरिकियों ने मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए वैश्विक द्विपक्षीय और बहुपक्षीय कूटनीति की अगुआई ले ली है। यह ताकत इनकी विदेश में निवेश करने की आर्थिक क्षमता, सहायता, व्यापारिक और वित्तीय सेवाओं को प्रदान करने, अपनी सैन्य ताकत का प्रयोग करने, और अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबद्धता के कारण मिली है।
भारत अब एक सकारात्मक नेतृत्व की भूमिका अदा करने के लिए संसाधन और प्रभाव प्राप्त कर रहा है। और यदि यह हस्तक्षेप करनेवाले दृष्टिकोण के साथ सहमत नहीं होता है, तो इसे फिर भी विकल्प प्रदान करने चाहिए। फिलहाल विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र के पास अपमानजनक सरकारों को मनाने और उनपर दबाव डालने के लिए वैश्विक दक्षिण देशों के प्रयासों का समर्थन करने का एक अवसर है।
इसकी श्रीलंका के मुद्दे पर आवाज़ उठाने की हाल ही की तत्परता एक आशाजनक निशानी है। कई वर्षों की “शांत कूटनीति” के बाद, जिसका कोई असर नही था, भारत ने दूसरे देशों के साथ संयुक्त राज्य मानव अधिकार परिषद में सरकार और एलटीटीई द्वारा किए गए युद्ध अपराधों के लिए जवाबदेही की आवाज़ उठाई। इसने 2012 और 2013 में श्रीलंका पर मानव अधिकार परिषद के प्रस्तावों का समर्थन किया। प्रस्ताव के समर्थन में अपने 2013 के कथन [हस्तक्षेप सी.यु.टी.], में भारत के राजदूत ने **श्रीलंका की अपर्याप्त प्रगति** की ओर ध्यान खींचा और **मानव अधिकारों के उल्लंघनों और आम जनता की जानों की हानि के आरोपों पर एक स्वतंत्र और विश्वसनीय जांच** के लिए आवाज़ उठाई।
भारत को अपनी िवदेश&नीतियों की उम्मीदों को पूरा करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना होगा। कूटनीति इसका बहुत ही छोटा-सा संवर्ग है और यही कारण है कि वह अक्सर ही देश की स्थितियों को निपटने के लिए समर्थ नहीं होता है। भारत के नागरिक शायद ही कभी विदेश नीतियों की चर्चाओं में भाग लेते हैं या सूचित करते हैं। कुछ विशेषज्ञ दल और विश्वविद्यालय जो इन मुद्दों को संबोधित करते हैं, उनका विदेशी नीतियों के संस्थापनों पर बहुत ही कम प्रभाव है। भारत को वैश्विक स्तर पर चीन की बढ़ती हुई भूमिका का भी सामना करना है। अब तक, काफ़ी हद तक, इसकी विदेशी नीतियां कूटनीतिक चिंताओं पर केंद्रित हैं। पाकिस्तान के साथ तीन युद्ध और चीन के साथ एक युद्ध हो चुके हैं। पाकिस्तान एक चिंता का कारण बना हुआ है क्योंकि इसके ऐसे सैन्य समूह हैं जो संस्थापना के कुछ लोगों पर आधारित और उनके द्वारा समर्थित हैं। परंतु, वह चीन है जिसपर इस क्षेत्र में, जिसमें पाकिस्तान, श्रीलंका और बर्मा के बंदरगाह भी शामिल हैं, अपने बढ़ते प्रभावों के लिए विशेषज्ञों की नज़र है। चीन अपने विदेशी व्यापार और निवेश को सुरक्षित करने के लिए सक्रिय रूप से मानव अधिकारों को अस्वीकार करता है, और इसने आंग सैन सू कि की कैद पर जनता से संबंधों को समाप्त करने के भारत के निर्णय का लाभ उठाकर बहुत ही कूटनीतिक दृष्टि से काम किया। भारत की संस्थापना यह मानती है कि यदि उसने विदेशी मामलों में एक सैद्धांतिक दृष्टिकोण का विकास किया, तो चीन इसे फिर से अपने लाभ के लिए प्रयोग करेगा।
परंतु, भारत को यह मानना पड़ेगा कि उसके पास चेकबुक कूटनीति में मुकाबला करने के लिए चीन के जितना पैसा नहीं है। एक प्रजातंत्र के रूप में, इसे उन तानाशाही सरकारों और शासनों का खुलकर समर्थन करने का खतरा है जो अभी भी अत्याचार के माध्यम से ताकत में बने हुए हैं।
भारत को पहले भी अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपना नाम कमाने के अवसर मिल चुके हैं। सिरिया में, 2011 में एक ईबसा (भारत, ब्राज़िल और दक्षिण अफ्रीका) टीम ने मानव अधिकारों की सुरक्षा के बारे में आवाज़ उठाने के लिए बशर अल-असद की सरकार से भेंट की। असद ने यह माना कि “कुछ गलतियां” हुई हैं और बदलाव का वादा किया। परंतु, ईबसा मानव अधिकारों के उल्लंघनों पर फॉलो-अप करने और उनके अंत के लिए दबाव डालने में नाकाम रही। दो साल बाद, कुछ 80,000 लोगों की मृत्यु हो चुकी है, लगभग 4 मिलियन बेघर हो चुके हैं, और शांति स्थापित करने, मानवीय सहायता प्रदान करने, और जवाबदेही प्राप्त करने के सभी अंतरराष्ट्रीय प्रयास एकदम ठप्प पड़ गए हैं।
श्रीलंका में, भारत ने सेना और तमिल इलम के लिब्रेशन टाइगर्स के बीच की लड़ाई के दौरान आम जनता के लिए खतरों के बारे में चिंताओं को व्यक्त करने के लिए निजी कूटनीति का चयन किया। संयुक्त राज्य के विशेषज्ञ पैनल की एक रिपोर्ट ने यह पाया कि हो सकता है कि युद्ध के आखिरी महीनों में 40,000 आम लोगों की मृत्यु हुई हो, अधिकतर सरकार द्वारा अंधाधुंध गोलीबारी के कारण। युद्ध के दौरान श्रीलंका सरकार के बर्ताव पर भारत सरकार की मजबूत और जल्द दर्ज की गई आपत्ति ने शायद आम लोगों की जानें बचा ली हों।
अजीबोगरीब बात यह है, जब भारत का वैश्विक समुदाय पर काफ़ी कम प्रभाव था, तब इसने कई विवादास्पद मुद्दों पर मज़बूत दृष्टिकोणों को अपनाया था। एक युवा देश के रूप में 1959 में, भारत ने दलाई लामा को पनाह दी थी । यह भारत-चीन संबंधों में अभी भी एक नाराज़गी का मुद्दा बना हुआ है, परंतु तिब्बत की निर्वासित सरकार लगभग 100,000 तिब्बती शरणार्थियों के साथ अभी भी भारत में आधारित है। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ़ भारत की सबसे प्रमुख आवाज़ों में से एक थी। अपने ही पड़ोस में, 1990 में भारत ने, बांग्लादेश और नेपाल में प्रजातंत्र को बढ़ावा दिया। उसके आरंभिक दिनों के दौरान, जब आंग सैन सू कि पर अत्याचार किया जा रहा था, बर्मा के सैन्य शासन का नई दिल्ली एक मज़बूत आलोचक था।
आज, भारत के पास अवसर है कि वह अपने हितों को विश्व के मज़लूम लोगों के साथ संरेखित करे, जिनकी उनके मूल अधिकारों के लिए गरिमा और आदर की मांगें तेज़ी से बढ़ रही हैं। भारत को चाहिए कि वह विश्व के अन्य हिस्से के लोगों के लिए आवाज़ उठाने में न हिचकिचाए और उनकी पीड़ा समाप्त करने की कोशिश करे। उसे उन उम्मीदों पर खरा उतरना चाहिए कि भारत, चीन के विपरीत, मानव अधिकारों को बढ़ावा देता है।

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