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भारत की आधिकारों के लिए तथाकथित क्रांति

जैसे-जैसे भारत वैश्विक शासन में एक बड़ी भूमिका तलाश कर रहा है, वैसे-वैसे देश की खुद की समास्याएं बदतर होती जा रही हैं। सामाजिक सेवाओं के वितरण की ओर छोटे कदम उठाए जा रहे हैं, परंतु प्रयास यह प्रश्न पूछते हैं: एक अधिकार का क्या लाभ यदि अधिकार का लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता? मैथ्यू इडिकूला, मीनाक्षा गांगुली, असीम प्रकाश और राम मशरू को जवाब। English

Neera Chandhoke
8 November 2013

रिक्स के उदय और अंतरराष्ट्रीय वित्त और प्रशासन के उच्च स्थान पर एक सीट के लिए उभरती शक्तियों की मांग के बारे कुछ व्यंग्यात्मक अवश्य है: हालांकि वे वैश्विक शासन में असमानता दूर करने के लिए प्रयास कर रहे हैं, िफर भी भूख और अन्याय इनके अंदर राज कर रहे हैं। क्या सदस्य देशों के बढ़ते प्रभावों का ग़रीबों के जीवन पर कोई भी असर पड़ेगा?

ऑरगेनाइज़ेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवेलपमेंट (आर्थिक सहयोग और विकास के लिए संगठन) (ओईसीडी) की ताज़ा रिपोर्ट हमें बताती है कि हालांकि ब्रिक्स देशों (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) ने 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट से उभरने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है, इन देशों में आय असमानता ओईसीडी औसत से काफ़ी अधिक है। ब्राज़ील ने असमानताएं कम की हैं, परंतु चीन, भारत, रूस और दक्षिण अफ्रीका में पहले की तुलना में असमानताएं बढ़ गई हैं। 2013 विश्व बैंक की रिपोर्ट "द स्टेट ऑफ द पूअर: वेयर आर द पूअर एंड वेयर आर द पूअरेस्ट?" (ग़रीबों के हालात: ग़रीब कहां हैं और सबसे ग़रीब कहाँ हैं?) में कहा गया है कि दुनिया के एक-तिहाई ग़रीब भारत में 1.25 अमेरिकी डॉलर प्रति दिन से कम में गुज़र करते हैं।

यह अफ़सोस की बात है - बल्कि दुखद है - कि भारतीय संविधान ने नागरिक और राजनीतिक अधिकारों को संहिताबद्ध किया परंतु सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को नहीं। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने 1920 के दशक में ही यह समझ लिया था कि राजनीतिक स्वतंत्रता तभी संभव है जब लोग कमी और भूख से मुक्त होंगे। उन्होंने 1928 के नेहरू संवैधानिक ड्राफ्ट और बाद के दस्तावेज़ों में राजनीतिक, नागरिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अधिकारों के एक एकीकृत एजेंडे की परिकल्पना की थी। परंतु, संविधान-सभा में, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को सरकार के लिए मात्र मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में डाउनग्रेड कर दिया गया और ये अप्रवर्तनीय हो गए। बिल्कुल यही वह समस्या थी जिसने 21 वीं सदी की समाप्ति के दौरान समकालीन नागरिक समाज अभियानों को जन्म दिया था। इन अभियानों ने सामूहिक कार्रवाई के क्षेत्र में सक्रियतावाद के एक नए चरण का उद्घाटन किया।

सरकार ने खाद्य, रोज़गार, सूचना और प्राथमिक शिक्षा के अधिकारों के चार अभियानों पर कार्य किया है, और उठाए गए मुद्दों पर कानून बनाया है। परंतु, अभी भी भारत शायद ही सामाजिक क्रांति के बीच में है। कानून ज़रूरतों को पूरा करने मे असफल हैं। और एक ऐसे “अधिकार” को प्रदान करने का क्या लाभ है जब आम लोग उससे मिलने वाले फ़ायदे को प्राप्त ही नहीं कर पाएंगे? उदाहरण के लिए, भारतीयों के पास प्राथमिक शिक्षा का अधिकार है, परंतु सरकारी स्कूलों ने अपना ``नाम रोशन`` िकया है इनके िलयेः बेकार के परिणाम; शिक्षक अनुपस्थिति; सरकार द्वारा सौंपे कार्य जैसे जनगणना, चुनाव ड्यूटी, और बच्चों के लिए दोपहर के भोजन की तैयारी करने के कारण शिक्षकों का ध्यान बंटाना; कक्षाओं, ब्लैकबोर्डों, शौचालयों, खेल के मैदानों, बिजली और कंप्यूटरों जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव; पाठ्येतर गतिविधियों की कमी; और शिक्षण के प्रति और छात्रों में सीखने की एक चाह उत्पन्न करने के प्रति सामान्य फिर प्राथमिक शिक्षा के अधिकार का क्या मूल्य है?

राजनीतिक वर्ग की ज़्यादातर वाक्पटुता से राजनीतिक बयानबाज़ी प्राप्त होती है, और नेतागण का प्रयास होता है कि खाद्य, रोज़गार और शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं से राजनीतिक/चुनावी धन की प्रत्येक बूंद बटोर ली जाए। कानूनी पहलों को व्यवस्थित करने बल्कि संवैधानिक अधिकारों तक को लागू करने के लिए कम-से-कम ही प्रयास किया जाता है। साथ ही जवाबदेही लागू करने या शिकायतों का निवारण करने के लिए कोई भी तंत्र स्थापित नहीं किया गया है। इस तरह के विवरणों के लिए ध्यान में कमी सरकार के नागरिक समाज द्वारा अधिकार के प्रवचनों पर किए गए कार्यों को ख़राब रूप से दर्शाती है।

ग़ौरतलब है कि सामाजिक सेवाओं के वितरण के लिए अभियान अधिकतर या तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से उत्पन्न हुए हैं, या अपने उद्देश्यों में तभी सफल हुए हैं जब न्यायालय ने उनकी ओर से हस्तक्षेप किया है। कोर्ट के हस्तक्षेप से अभियानों को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मदद अवश्य ही मिली है, परंतु कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा ये बात नागरिक समाज लामबंदीकरण के विरोधाभास को दिखाता है। अधिकतर साहित्यों में यह माना जाता है कि नागरिक समाज समूहों में सरकार से अपनी मांगों पर ध्यान देने और उन्हें मनवाने की क्षमता है। परंतु, भारतीय सरकार न्यायिक निषेधाज्ञा की ओर अधिक सक्रिय रही है, जिससे कि अदालती सक्रियतावादी का प्रयोग करने वाले समूहों की संख्या बढ़ती जा रही है।

उस पर, न्यायिक सक्रियतावाद के बारे में चिंताएं बढ़ती जा रही हैं क्योंकि न्यायपालिका किसी का प्रतिनिधित्व नहीं करती है और यह कार्यकारी और विधायी शाखाओं पर सवार भी हो रही है। कुछ विद्वान तो इस प्रकार के सक्रियतावाद को लोकलुभावनवाद के रूप में खारिज करते हैं, और मानते हैं कि 1975-1977 की सरकार द्वारा आपातकालीन घोषणा के दौरान इसके ढीलेपन के बाद कोर्ट केवल अपनी छवि को सुधारने का प्रयास कर रही है। समकालीन नागरिक समाज की लामबंदीकरण के सीमित एजेंडा होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने एक सक्रिय रुख अपनाया है। सत्ता संबंधों के एक कट्टरपंथी पुनर्गठन की मांग करने वाले सामाजिक आंदोलन न्यायपालिका से अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं ले पाए हैं। न ही कोर्ट दक्षिण अफ्रीकी न्यायपालिका की तरह सामाजिक अधिकारों का एक व्यापक सिद्धांत प्रतिपादित कर पाई है।

1990 के दशक के अंत में, कई नागरिक समाज संगठनों ने प्रत्यक्ष रूप से अपनी रणनीति में परिवर्तन किया - सरकार का विरोध और उसकी आलोचना करने के बजाय वे सरकार की वकालत और उसके साथ साझेदारी करने लगे। जिन समूहों ने यह रणनीति चुनी उनकी संख्या और प्रभाव में वृद्धि हुई है, और उनमें से कई चुनावी एजेंडा पर राजनीतिक दलों को सलाह भी देते हैं। कुछ अभियानों के नेताओं को कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा सुश्री सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में शामिल किया गया है। एनएसी के ज़रिये कई कानूनों के पारित होने में सहायता प्राप्त हुई है, परंतु ऊपर से बनाये गए इन कानूनों में अपनी समस्याओं होती हैं। उदाहरण के लिए, एनएसी की सदस्यता नागरिक समाज संगठनों की सफलता के लिए एक बेंचमार्क बन गई है। हमें यह आशा नहीं करनी चाहिए कि सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त करने का इच्छुक नागरिक समाज सरकार को आड़े हाथ ले सकता है। यह हैरानी की बात नहीं है कि यह प्रणाली अपने स्थान पर है, और एक गहरी अस्वस्थता के लक्षणों के लिए उपचार का विकास नहीं हो रहा है।

यदि सरकार के साथ साझेदारी समझौते नागरिक समाज सक्रियतावाद की धार को मन्द किए जा रहा है, तो उनकी अभियान रणनीतियां शायद ही परिवर्तनकारी सामाजिक बदलाव के लिए अनुकूल हैं। सामाजिक सेवाओं के वितरण के लिए अभियानों ने सामाजिक आंदोलनों की ऊँचाई नहीं प्राप्त की है, जो इतिहास का उदाहरण देते हैं और लोगों को एकजुट करते हैं, उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करते हैं, और उन्हें अपने हक के लिए संघर्षों में भाग लेकर एजेंसी बनाने में सक्षम बनाते हैं। नेता सामान्यतः मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवी होते हैं, जिनमें से कई वर्ल्ड सोशल फोरम में सक्रिय होते हैं। वे ग़ैर-सरकारी संगठनों की स्थापना में शामिल होते हैं और अनुदान के प्रमुख स्रोतों तक उनकी पहुँच होती है। ग़ैर-सरकारी संगठन अन्य संगठनों के साथ नेटवर्क करना पसंद करते हैं, अपने जैसी विचारधारा वाले अन्य व्यक्तियों को याचिकाओं पर हस्ताक्षर करने के लिए आमंत्रित करते हैं, मीडिया के माध्यम से सरकार और समाज तक पहुँचने का प्रयास करते हैं, सरकारी अधिकारियों को मनाने की कोशिश करते हैं, और कानूनों का ड्राफ्ट तैयार करते हैं। यह बात शायद ही लोगों को अपने लिए बोलने में मदद करती है। 

अंत में, बड़े पैमाने के लामबंदीकरण के आधार पर चलने वाले सामाजिक आंदोलनों के विपरीत, नागरिक समाज अभियान आमतौर पर बेबसी और लाचारी के स्रोतों पर काम नहीं करते हैं, जैसा कि विषम आय पैटर्नों में नज़र आता है। सत्ता संबंधों में बदलाव की मांग करने वाले आंदोलनों के विपरीत, सामाजिक सेवाओं के वितरण के लिए किए जाने वाले अभियान कुछ विशेष मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं और बड़ी कहानी को अछूता छोड़ देते हैं - उदाहरण के लिए, संसाधनों की भारी असमानताएं। हालांकि ये दरिद्रता, अस्वास्थ्य और अशिक्षा के मुद्दों को उजागर करने में कामयाब रहे हैं, िफर भी इनमें से किसी भी प्रयास ने वास्तव में संसाधन असमानताओं को संबोधित नहीं किया है। इन अभियानों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पीढ़ियों के बड़े और विशाल सपनों पर कार्य नहीं किया है: मौजूदा सत्ता संरचना की फिर से संरचना करना और सामाजिक संबंधों की नई और न्यायसंगत संरचनाओं को बनाना ताकि नागरिक राजनीतिक प्रक्रियाओं में बराबर के अधिकारों के साथ भाग ले सकें। इसके विपरीत, वे रोज़मर्रा के जीवन की आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं। परिणाम उम्मीद के मुताबिक होता है। सत्ता के गलियारों से उत्पन्न शब्दावली समावेशन और प्रशासन की होती है, न कि लोगों की ऊर्जा को उनके अधिकारों के प्रयोग के माध्यम से रिहा करने की और मात्र प्रचुरता के बजाय समानता को प्राप्त करने की। 

ये अभियान बल्कि ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि सरकार उन बातों को लागू कर सके जो उसने सिद्धांत के रूप में देने का वादा किया है, जैसे िक: नीतियां प्रभावी ढंग से लागू की जाएं, स्थानीय अधिकारीगण जवाबदेह बनाए जाएं, सरकार का कामकाज सार्वजनिक और पारदर्शी बनाया जाए, प्राथमिक स्कूलों में दोपहर का भोजन बच्चों को उपलब्ध कराया जाए, ग़रीबों को एक वर्ष में कम-से-कम 100 दिनों के लिए रोज़गार मिले, और बच्चों को स्कूल लाया जाए। आम भारतीय के लिए जीवन की गुणवत्ता में शायद सिर्फ कुछ हद तक सुधार हो जाएगा, परंतु इससे स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं होती है।

भारत और अन्य ब्रिक्स के सदस्य दुनिया के मंच पर एक अधिक शक्तिशाली स्थान की तलाश करते हुए घर में उपस्थित समस्याओं को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं। अभी के लिए लगता है कि असमानता का मुद्दा भारत के सामूहिक जीवन को चकमा देना जारी रखेगा।

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